Friday, 18 September 2020

समझ समझ का फेर


©®अमनदीप "विम्मी"




 ©®अमनदीप " विम्म्मी "

इंतज़ार


 माँ हर साल इंतज़ार करती रहती 

करवाचौथ में मायके से शगुन के रूप में

आएंगे एक सौ एक रुपए.....


दादी को  इंतज़ार था

अपने गाँव के घर से आने वाले 

प्रति माह पचास रुपए किराए का....


पापा को हर महीने की तनख़्वाह का...


पापा की बारी - बारी तीन शिफ़्ट की नौकरी में

हम बहन - भाई इंतज़ार करते थे पारले जी बिस्कुट का

जो नाईट शिफ्ट में ड्यूटी करने के बाद 

पापा ले आते थे घर...


उस इंतज़ार का स्वाद आज भी है जीभ पर 

कानों पर अभी भी ठहरी है सायकिल की घन्टी की आवाज़


होते हैं....सबके अपने - अपने इंतज़ार

और हर इंतज़ार के अपने अपने सुख....


✍️©® अमनदीप " विम्मी "

कविता संग्रह

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