Tuesday, 23 March 2021

प्रतिनिधि बन ठगते रहे मुझे



मुझे  हमेशा ही समझाया गया

कि जोर देकर ज़ोर से बार-बार कही गई बात 

हमेशा सच नहीं होती...

तुम्हारे दिए हर आक्षेप के प्रत्युत्तर में

मैंने चुना मौन.....


कि हवा के साथ बह कर आती हुई बातों पर

नहीं धरा करते कान ...

चार मुँह से जुगाली कर जगह-जगह पिच्च से थूकी जाने वाली  बातें

कतई नहीं होतीं ग्राह्य 

मैंने कान भी बन्द कर लिए....


फिर जाना खुली आँखों से देखे जाने वाले सपनों

के पैरों में बँधी होती हैं बेड़ियाँ

आँखें भी बंद कर लीं हैं मैंने अब....


अब मैं गाँधी जी के तीन बन्दरों का जीता जागता उदाहरण हूँ.....


तुम इन सबमें 

सबसे ज्यादा फ़ायदेमंद रहे अब तलक

तुमने आक्षेप भी लगाया 

गुल भी खिलाए 

दूसरे के सपनों में लगाई सेंध भी

गाँधी जी के तीन बन्दरों से उलट चलने वाले तुम 

समाज  के सबसे चालाक प्रतिनिधि बन 

वर्षों से ठगते रहे मुझे.....

कविता संग्रह

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