Tuesday, 14 August 2018

इंतज़ार

0७/0८/201८

एक ज़माना गुज़र गया
जाते - जाते कह गया
चाँदी उतर आई है बालों पर
थक गई होगी ,
बुन क्यों नहीं लेती ख्यालों की चारपाई?
सुस्ता ले ज़रा
ख्वाबों की चादर ओढ़
कुनकुनी धूप में |
शाम ढले जब लौटें पंछी
सुकून से मन की मिठास
चाय में मिला पिला देना
रात को सितारों की छाँव तले
बातें करना चाँद से
फिर -
एक और सुबह
एक और दोपहर
एक और शाम और रात का
इंतज़ार यूँ ही |
ख़त्म हो जाती है दिनचर्या
मैं वहीँ खड़ी रह जाती हूँ
फिर एक ज़माना गुज़रने को है .......

©®अमनदीप / विम्मी

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