Saturday, 13 July 2019

औरतें

औरतें
कुछ औरतों के नसीब में  होते हैं महल
सजे - सजाए
ऊँची-ऊँची, रँग-बिरंगी दीवारों वाले
जिनसे जूझती उनकी चीखें
दम तोड़ देती हैं वहीं कहीं, उन्हीं दीवारों के भीतर 
बाहर निकलने का रास्ता ढूँढते-ढूँढते....
कुछ को मिलती है छत
जर्जर दीवारों से घिरी
भेद कर जिनको
बाहर तैर आती हैं उनकी चीखें
फैल जातीं हैं समाज में
अमरबेल की तरह...
समाज के कान रुई से ठसे पड़े हैं
और हाथ जकड़े...
कहीं भी नहीं पँहुचते वो कान
कहीं भी नहीं पँहुचते वो हाथ 
जो निकाल लें उन्हें इस दलदल से...
समाचार पत्रों में खबर बनने से पहले
मर जातीं हैं कुछ चीखें
और कुछ समाचार पत्रों में छपने के बाद भी
रद्दी की तरह मोड़ कर
फेंक दी जाती हैं यूँ ही कहीं...

©®अमनदीप / विम्मी

०४/०७/२०१९

सराय

सराय

औरतों ने खुद को सराय बना रखा है
कोई दिन को लौटता है
कोई शाम को
और कोई रात को
अपनी अपनी मजबूरियों की पोटली लिए
 हर कोई ढूँढता है जगह
सोने की, नहाने की या फिर
मैला धोने की
फिर चला जाता है दिन, शाम और रात को लौटने के लिए
औरतों ने  कई दिन, शामें और रातें तन्हा गुज़ारी हैं
सराय बन कर ।

©®अमनदीप/ विम्मी

कविता संग्रह

  https://www.amazon.in/dp/B09PJ93QM2?ref=myi_title_dp