समय वो भी नहीं रहा, समय ये भी नहीं रहेगा
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बाल्कनी में खड़े, देख रही हूँ लोगों को आते-जाते
अच्छा लगता है देखना चेहरे, चाँद-तारे और हवाई जहाज भी
चेहरे कुछ नए से, कुछ विचित्र से लग रहे हैं
चाँद तारे पँहुच से बहुत दूर.....
दूर तो हवाई जहाज भी है
और टेलीविज़न में दिखते लोग भी
हवाई जहाज भी बेवजह देखती हूँ और टेलिविज़न भी
आते जाते का अहसास बना रहता है.....
काले, नीले, पीले, सफेद, हर रंग के मास्क लगाए घूम रहे हैं लोग
मास्क तो पहले भी लगाए फिरते थे
पर अदृश्य थे
उस अदृश्यता के आर-पार ढूँढने पड़ते थे पीले पड़ते या जर्द होते चेहरे...
फर्क है, पहले छुपाना पड़ता था
अब मुँह अपने आप छिपा रहता है
बिना किसी प्रयत्न छिपी रहती हैं चेहरे की अनगिनत परतें....
किवाड़ हिलता सा लगता है कभी
दरवाजे पर जो मिलता है वो है दूध की थैली और अखबार
चिमटे से अखबार उठाती हूँ एक डब्बे में डाल
ढक देती हूं ऊपर से
दूध की थैली धो दूध उबालने रख
फिर हाथ धोती हूँ
ये हाथ साफ़ क्यूँ नहीं होता ?
कितना दर्द है हाथ साफ़ न होने में, दिल के साफ़ न होने में भी...
पर सुनो, तुम बहाने मत तलाशना छिपने के
ज्यादा न सही , थोड़ी मुँह की शर्म रखना
मास्क के अंदर भी बचा कर रखना इंसान होने की वजहें
संभलना और सम्भालना
ये अवसादों का समय है.....
समय वो भी नहीं रहा, समय ये भी नहीं रहेगा...
©®अमनदीप/विम्मी
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