'गीत'
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नाटक के उस खेल-खेल में,
मैं सीता तुम राम बने थे;
नदी किनारे रास रचाते,
मैं राधा तुम श्याम बने थे;
बिसर गई भोली बातों की,
स्मृति अब भी शेष बची है;
कैसे कह दूँ !
जीवन की आपाधापी में,
आज तुम्हारा मोल नहीं है।
होली-रँग में भीग-भीगकर,
दीपावली-दीप से जलते;
इंद्रधनुष से रंग-बिरंगे,
वर्षा में बादल से घिरते;
सीली-सीली उन बातों की,
झलक अभी भी शेष बची है;
कैसे कह दूँ!
रंगों से भीगे इस मन की,
बाती में अब तेल नहीं है।
जब चहुँ-ओर सघन तम फैला,
तब-तब तुमने राह दिखाई;
तप्त-भूमि पर पग धरते ही,
तुम संग चले,चली पुरवाई;
नये-नवेले प्रेम की ख़ुशबू,
हवा में अब भी रची-बची है;
कैसे कह दूँ !
छल है सब कुछ,
तुमसे मिलना मेल नहीं है।
दहलीज़ों से पैर बँधे थे,
मन में ढेरों सपन सजाए;
हे सजना! मिलने को आतुर,
दृग ने निशि-दिन नीर बहाए;
दर्पण के टूटे टुकड़ों की,
पीड़ा उर में धँसी-बची है;
कैसे कह दूँ!
लहरों से नौका की यारी,
तट से कोई खेल नही है।
✍️ अमनदीप " विम्मी "
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