Thursday, 20 January 2022

गीत


 

'गीत'

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नाटक के उस खेल-खेल में,

मैं सीता तुम राम बने थे;

नदी किनारे रास रचाते,

मैं राधा तुम श्याम बने थे;


बिसर गई भोली बातों की,

स्मृति अब भी शेष बची है;


कैसे कह दूँ !

जीवन की आपाधापी में,

आज तुम्हारा मोल नहीं है।


होली-रँग में भीग-भीगकर,

दीपावली-दीप से जलते;

इंद्रधनुष से रंग-बिरंगे,

वर्षा में बादल से घिरते;


सीली-सीली उन बातों की, 

झलक अभी भी शेष बची है;


कैसे कह दूँ!

रंगों से भीगे इस मन की,

बाती में अब तेल नहीं है।


जब चहुँ-ओर सघन तम फैला,

तब-तब तुमने राह दिखाई;

तप्त-भूमि पर पग धरते ही,

तुम संग चले,चली पुरवाई;


नये-नवेले प्रेम की ख़ुशबू,

हवा में अब भी रची-बची है;


कैसे कह दूँ !

छल है सब कुछ,

तुमसे मिलना मेल नहीं है।


दहलीज़ों से पैर बँधे थे,

मन में ढेरों सपन सजाए;

हे सजना! मिलने को आतुर,

दृग ने निशि-दिन नीर बहाए;


दर्पण के टूटे टुकड़ों की,

पीड़ा उर में धँसी-बची है;


कैसे कह दूँ!

लहरों से नौका की यारी,

तट से कोई खेल नही है।


✍️ अमनदीप " विम्मी "

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