Tuesday, 20 February 2018

उड़ना चाहती हूँ मैं

पेशानी पर उभर आई
चिंता की लकीरें ,
गले से उतरते
अपमान के कड़वे घूँट ,
जहन में उगती
लम्बी सी परछाई ,
कब जुदा होने देते हैं
मुझे तुमसे |
अग्यात शून्य में ताकती
निगाहों में -
शाम उतरे उस से पहले
सपनों को उड़ान देना चाहती हूँ !
भ्रम बनने से पहले
सहेज लेना चाहती हूँ  उम्मीदें ,
हौले हौले रेंगते हुए अब
दौड़ने की हिम्मत जुटा ली है मैने ,
उगा लिए हैं पँख
अब - उड़ना चाहती हूँ मैं .....!!

©®अमनदीप / विम्मी

Thursday, 15 February 2018

यूँ ही

ज़ख्म कुरेदोगे तो नासूर बन जाएंगे ,
नासूर कुरेद कर क्या पाओगे .
समुन्दर से ज्यादा गहराई है मुझ में ,
उतरोगे डूबते चले जाओगे .

मंजिलें  बैठी रही ऊम्मीद में ,
तकती रहीं रस्ता मेरा .
आसमाँ कम उडान लम्बी थी मेरी !
पर कुतर कहते हो उड़ पाओगे ?

सुबह से शाम हुई जाती है,
रात चली आती है हौले हौले ,
ख्वाबों पर तो  हक रहने दो  मेरा ,
सुबह होते ये भी ढल जाएँगे.

©®अमनदीप/विम्मी

कविता संग्रह

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