Tuesday, 20 February 2018

उड़ना चाहती हूँ मैं

पेशानी पर उभर आई
चिंता की लकीरें ,
गले से उतरते
अपमान के कड़वे घूँट ,
जहन में उगती
लम्बी सी परछाई ,
कब जुदा होने देते हैं
मुझे तुमसे |
अग्यात शून्य में ताकती
निगाहों में -
शाम उतरे उस से पहले
सपनों को उड़ान देना चाहती हूँ !
भ्रम बनने से पहले
सहेज लेना चाहती हूँ  उम्मीदें ,
हौले हौले रेंगते हुए अब
दौड़ने की हिम्मत जुटा ली है मैने ,
उगा लिए हैं पँख
अब - उड़ना चाहती हूँ मैं .....!!

©®अमनदीप / विम्मी

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