Thursday, 19 July 2018

आँखे किसकी कब रोती हैं

आँखें किसकी कब रोती हैं
ये बस दिल के ग़म धोती हैं

कुछ तूने कुछ मैंने छांटे
ज़ख्म उम्र के पल में बाँटे
दर - ब - दर कम होतीं साँसे
कब तक किसका तन ढोतीं हैं

आँखें किसकी कब रोती हैं

बैरन बन गई आज दोपहरी
शाम साँप सीने पर लोटे
रात सखी सपनों संग काटी
यूँ ही सब बातें होती हैं

आँखें किसकी कब रोती हैं
ये बस दिल के ग़म धोती हैं .

©®अमनदीप /विम्मी

Monday, 9 July 2018

खामोश रहकर भी सब कुछ कह जाएगा
दिल को अनजाना सा दर्द दे जाएगा

कह दे जो भी मन में है तेरे ऐ दोस्त
कल तक कहाँ ये लम्हा ठहर पाएगा

रफ्ता रफ्ता गुजर जाएगी  ज़िन्दगी यूँ ही
ना मैं रह पाऊँगी ना ही तू रह जाएगा |

©®अमनदीप / विम्मी

Monday, 2 July 2018

मुझे सबसे डर लगता है



डर लगता है मुझे चाँद को देखकर
जिसे मैं एक बड़े प्यारे रिश्ते से
मामा कहकर बुलाती थी
क्योंकि उसकी चाँदनी छिटकाती निगाहें 
 टटोलती हैं मेरा बदन
और मौका मिलते ही छू लेतीं हैं उसे
मुझे आईने से भी डर लगता है
जो समेट लेता है मेरा रूप रँग
अपने अन्दर
और घूरता है मुझे मेरी ही नजरों से
मुझे सबसे डर लगता है
क्योंकि मैंने माँ के गले से निकलती
दबी , घुटी - घुटी , कराहती सी
चीख सुनी है
जो निकली थी उसके दिल से
असीम वेदना सहकर
उसने एक पिता को
जवान होती बेटी पर आसक्त होते देखा था
दबा दी गयी थी उसकी आवाज
झोंक दिया गया था उसके शरीर को
शमशान की जलती चिता में
हाँ , मैंने उस माँ के दिल का जख्म भी देखा है
जो रो रहा था फूट फूट कर अपनी किस्मत पर
पीट रही थी माथा
अपनी लड़की के सिरहाने बैठ
जो अपनी कोख में पल रही
भाई की भूख मिटने आई थी
अस्पताल में ,
इसलिए , मुझे डर लगता है
चाँद से -
जिसे मैं प्यार से मामा कहती थी
आईने से -
जो मेरा ही रूप मुझे दिखाता  है
और हर राह चलती निगाह से ,
हाँ ! मुझे सबसे डर लगता है

२९-०७-८८

©®अमनदीप/विम्मी

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