Wednesday, 19 February 2020

तुम आसमान में बनाना आशियाना











जब तक इस घर को वारिस नहीं दे देती
तब तक हर अधिकार से वंचित हो तुम....
कह कर दुत्कारी गई औरतें
भावनाओं से भी हो जाती हैं बाँझ
निःशब्द और खानाबदोश.....
खानाबदोश सी ढूँढती हैं वो कोना
जहाँ तिरोहित कर सकें
आँखों के पोरों तक पँहुचा नमक
उकेर सकें अपने जज़्बात
किसी कागज के कोने पर ...
काम के बीच कुछ वक्त उधार माँग
झाँकती है बाहर
ढूँढने अपना खिड़की भर आसमान...
 देखती हैं चिड़िया
और दोहराती हैं अपने आप में
 किसी ने बताया नहीं तुम्हें
 कितनी सुंदर हो तुम
नील चिरैया !
चहचहाती, फुदकती
कितनी प्यारी लगती हो !
तुम आसमान में ही बनाना आशियाना अपना
पँखों को देना मज़बूती और नाप लेना सारा आकाश....
तुम्हें आभास नही शायद
कि खिड़की भर आसमान ढूँढते कैदियों के जज़्बात
नदी बनने के पहले ही रेगिस्तान में तब्दील हो जाते हैं...
कुछ दानों का लालच
तुम्हारी स्वतंत्रता में सेंध है...
पता है तुम्हें धरती सिर्फ दूसरी तरफ से ही
हरी दिखाई देती है....

©®अमनदीप / विम्मी

No comments:

Post a Comment

कविता संग्रह

  https://www.amazon.in/dp/B09PJ93QM2?ref=myi_title_dp