Saturday, 27 June 2020

मानवता लुप्तप्राय है

मानवता लुप्तप्राय है

मनुष्य की परिभाषा जो 
अनगिनत निबंधों में लिखी और पढ़ाई गई
उसकी प्रथम पंक्ति हमेशा ही जिस वाक्य से शुरू हुई वह थी
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है
मनुष्य ईश्वर की सबसे अनुपम कृति है
बहुत मुमकिन है आगे निबन्धों में  लिखा और पढ़ाया जाए
मनुष्य एक असमाजिक प्राणी है
संवेदन शून्यता की चरम स्तिथि है समाज ....
इसलिए तथाकथित मनुष्यों से डरो
हे जानवरों
तुम सबसे ज्यादा शक मनुष्यों पर करना
उस प्रजाति पर करना जो सबसे बुद्धिमान है
ये नए नए तरीके गढ़ लेगा
तुम्हारे समूल नाश के....
तो बदल दी जानी चाहिये
समाज की परिभाषा
मनुष्य पर लिखे गए निबंध की पहली पंक्ति
आज जबकि मनुष्य में निहित
भावनाओं की एक प्रजाति, मानवता लुप्तप्राय है
जल प्रवाह के नियमों की तरह
उसे भी ऊपर से नीचे बहना सीखना होगा .....

©®अमनदीप/विम्मी

शकुनि अब लड़वाता नहीं प्यार से गला काटता है

हवा इन दिनों कुछ 
ज्यादा ही बदली सी लगती है
प्रत्येक व्यक्ति के अंदर 
बैठा  एक 
शकुनि...
समय के हिसाब से 
फेंकता है पासे....
और
देखता रहता है
टकटकी लगाए
किस ओर बैठेगा ऊँट...
या फिर
ऊँट को
अपने हिसाब से बैठा कर 
चलता है चालें...
शकुनि पहले से ज्यादा
शातिर  हो गया है
अब
कृष्ण को भी पता नहीं  चलती
उसके शकुनि होने की बात
अब लड़वाता नहीं वो....
प्यार से
एक एक का गला काटता है
संवेदनशीलता
और
समाज सेवा के नाम पर...

©®अमनदीप/विम्मी

दूरियाँ भी अजीब होती हैं


दूरियाँ भी 
कितनी अजीब होती हैं ना....
हम एक दूजे की
खूबियों, ख़ामियों, ख़्वाहिशों
यहाँ तक कि 
खामोशियों से भी परिचित थे...
हमने चुम्बक की प्रकृति की तरह
समान होने के बावजूद 
हमेशा धकेला
दूसरे को खुद से परे
और
पास होते हुए भी रहे दूर ....
इसके इतर,
वो जिनके बीच थी
विपरीत ध्रुव भर की दूरियाँ
एक दूसरे की 
खूबियों, ख़ामियों, ख़्वाहिशों, खामोशियों से अनजान
एक दूसरे को 
अपने आकर्षण में बाँधे रखा
वे दूर होकर भी पास रहे हमेशा....

©® अमनदीप/विम्मी

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