Monday, 24 August 2020

समय वह भी नहीं रहा, समय यह भी नहीं रहेगा

 

समय वो भी नहीं रहा, समय ये भी नहीं रहेगा

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बाल्कनी में खड़े, देख रही हूँ लोगों को आते-जाते

अच्छा लगता है देखना चेहरे, चाँद-तारे और हवाई जहाज भी

चेहरे कुछ नए से, कुछ विचित्र से लग रहे हैं

चाँद तारे पँहुच से बहुत दूर.....


दूर तो हवाई जहाज भी है 

और टेलीविज़न में दिखते लोग भी

हवाई जहाज भी बेवजह देखती हूँ और टेलिविज़न भी

आते जाते का अहसास बना रहता है.....


काले, नीले, पीले, सफेद, हर रंग के मास्क लगाए घूम रहे हैं लोग

मास्क तो पहले भी लगाए फिरते थे 

पर अदृश्य थे 

उस अदृश्यता के आर-पार ढूँढने पड़ते थे पीले पड़ते या जर्द होते चेहरे...


फर्क है, पहले छुपाना पड़ता था 

अब मुँह अपने आप छिपा रहता है 

बिना किसी प्रयत्न छिपी रहती हैं चेहरे की अनगिनत परतें....


किवाड़ हिलता सा लगता  है कभी

दरवाजे पर जो मिलता है वो है दूध की थैली और अखबार

चिमटे से अखबार उठाती हूँ एक डब्बे में डाल

ढक देती हूं ऊपर से

दूध की थैली धो दूध उबालने रख

फिर हाथ धोती हूँ

ये हाथ साफ़ क्यूँ नहीं होता ?

कितना दर्द है हाथ साफ़ न होने में, दिल के साफ़ न होने में भी...


पर सुनो, तुम बहाने मत तलाशना छिपने के

ज्यादा न सही , थोड़ी मुँह की शर्म रखना

मास्क के अंदर भी बचा कर रखना इंसान होने की वजहें

संभलना और सम्भालना

ये अवसादों का समय है.....


समय वो भी नहीं रहा, समय ये भी नहीं रहेगा...


©®अमनदीप/विम्मी

बच्चा बचाएगा दुनिया

 

बाल कविता

 

चन्दा रूठे गर रातों से

सूरज बोले न निकलूँगा

बादल बिन बरसे उड़ जाए

धरा कहे मैं बंजर अच्छी

गाय दूध खुद ही पी जाए

सोचो जो पवन थम जाती

दुनिया फिर कैसे जी पाती


कृषक भोजन को ग्रास बनाता

जग सारा भूखा रह जाता

पेड़ अपने ही फल खा जाए

नन्हा रो रो  जिद पर आए

सोचो जो धरती थम जाती

रात न जाती सुबह न आती


पानी कहे न प्यास बुझानी

सबने ही जब की मन मानी

अब तुम ही कुछ करो विधाता

सद्कर्म करे जो जग में आता

तितली बन उपवन फिर आती

दुनिया कितनी सरल हो जाती


तू सिर्फ़ अपने कर्म जिए जा

जितना हो निष्काम जिए जा

लोभ मोह तज, जीवन भंगुर

स्वस्थ बीज बो फूटें नव अंकुर

दुनिया जो ऐसी हो जाती

मुन्नी नए नए स्वप्न सजाती ।

©®अमनदीप/विम्मी

 

 

Saturday, 8 August 2020

माँ तकती रही रास्ता

 माँ तकती रही रास्ता

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माँ दोपहर में नहीं सुनाती थी कहानियाँ

कहती थी, "मामा घर का रास्ता भूल जाते हैं"

सिर्फ़ इसी डर से फिर कभी नहीं चाहा मैंने

सुनना कहानियाँ ....

कितनी सफाई से माँ बहला देती थी मुझे अपने व्यस्ततम समय में

मैं गुड़िया सँग सो जाती लिपट कर

बिना कहानी सुने...

बावजूद इसके

"मामा कभी घर का रास्ता नहीं भूले"

माँ तकती रही रास्ता....


©®अमनदीप/विम्मी

कविता संग्रह

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