Wednesday, 10 February 2021

सीढ़ियों का मनमर्जी से मुड़ना सुगबुगाहट है बगावत की


 सीढ़ियों का होना उसी तरह तय था जैसी वो थीं

उनके सारे काम पूर्वनिर्धारित थे

तय था उनका खुद बारे में सोचा जाना भी....


साल दर साल एक-एक पायदान चढ़ती सीढ़ियाँ छत की बराबरी तक पँहुचने के पहले ही

जान चुकी थीं लोगों द्वारा सीढ़ियों का अपने फ़ायदों के लिए इस्तेमाल करना

फिर दुबारा कभी न लौटना....


बरसों की धूप की जलन और जाड़े की ठिठुरन से अनमनी उदास सीढ़ियाँ

दीवारों से अपनी बाँह छुड़ा खुले रास्ते से होती हुईं कब चौराहे तक पँहुची उन्हें भी पता न चला

और चौराहा सही रास्ता न दिखा पाने के लांछनों से परेशान घड़ियाल सा उल्टा लेट ताकता रहा आसमान .....


हर किसी का मानना था

कि चौराहे पर उतरती सीढ़ियों की

खो जाती हैं मंजिलें उन गडमड होते रास्तों के चक्रव्यूह के मध्य कहीं.........


समाज के ठेकेदारों के दबाव में घर के बुज़ुर्गों और एकत्रित समूह ने भी कहा 

मर चुकी हैं घर से बाहर जाती सीढ़ियाँ हमारे लिए

ऐसी सीढ़ियों को कर लेनी चाहिए आत्महत्या किसी बावड़ी

या कुँए में कूदकर....


हथेलियों के ताप से नारियल के तेल की भाँति पिघलते पिता को

सीढ़ियों के मुड़ने का हिमायती होने पर दुत्कारा गया

माँ के हृदय की पीड़ा को टेसुएँ बहाने के लिए कोसा गया

उनकी परवरिश को नकारा साबित किया गया......


दादा का झक्क सफेद धोती के कोने से चश्मे को पोंछना

दादी का मुँह मोड़ना

माँ का रसोईघर से बाहर आना

पिता के जूतों पर धूप का फिर से कब्ज़ा

सारी अनहोनियाँ उस एक अनहोनी का प्रभाव थीं.....


परन्तु मौसमों की चिंता ने सीढ़ियों का रुख नहीं बदला

अलबत्ता उनकी प्रतिकूलता ने मजबूत किए सीढ़ियों के इरादे

वे अडिग थे कि सिर्फ कब्रों तक ले जाने के लिए होना उनकी नियति नहीं

उनका मुड़ना उनकी इच्छा पर निर्भर है....


हर मौसम में अलग रँग और मिज़ाज से रँगी सीढ़ियों के जाते ही 

कौवों को सुरक्षित दिखने लगी बिना सीढ़ी वाली छत.....


अब छत पर गोल गोल चक्कर लगाते कौवों को देख तथाकथित समाजिक मूल्यों के हिमायती लोग 

कह उठे आत्मा मुक्त है

कौवे मातमी भोजन के बुलावे के इंतज़ार में जा बैठे हैं मुंडेर पर

इक्कीसवीं सदी में भी नीलकंठ के परों से उड़े हुए हैं रंग......


#kishorechaudhary जी की कहानी #चौराहेपरसीढ़ियाँ

पढ़ते हुए



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