Saturday, 10 April 2021

बच्चों के सपने थकने नहीं देते




मुँह अँधेरे घर के सारे काम निपटा 

अपने लिए मुर्रा-भेल डाल टिफिन में 

हाँफती सी चढ़ती हैं नासिक से मुम्बई जाने वाली लोकल में औरतें

ढोल-मन्जीरे-छेने बजाती भजन-मंडली के साथ 

गाती जाती हैं भजन....


दिन भर के काम थकी मांदी फिर चढ़ती हैं

मुम्बई से नासिक की लोकल में पसीने से तर बतर वही औरतें

चार घन्टों का सफर तय कर पहुँचती हैं देर रात घर...


रास्ते में चौकीदार , ऑटो वाले मारते हैं मुस्कियाँ - लो आ गई मैडम घूम फिर के 

काम ही क्या करती हैं ऑफिस में

आँख मटकाने के पैसे मिलते हैं इन्हें....


पनवाड़ी की दुकान में खड़े सिरफिरे आशिक बजाते हैं सीटी गाते हैं गाने बेढंगे बेसुरे अपने होंठों पर जीभ फिराते हुए...


"सुबह सवेरे सज धज तो बॉस के लिए होती है

हमें तो वही रोनी सूरत के दर्शन होते हैं "

ऐसे उलाहनों से बचने के लिए ट्रेन से उतरने के पहले पोत लेती हैं लिपस्टिक बना लेती हैं बाल

फिर भी सुनती है ताने - "रास्ते में तेरा यार बैठा था इतनी रात गए जो लिपी-पुती आई है देर रात"


देसी दारू की बोतल में डुबकी लगाते मर्द से

रात में चोट खाई औरतें बार बार करती हैं नौकरी से  तौबा...


बिस्तर पर ही देख पाती हैं बच्चों को बढ़ते हुए

याद करती हैं उनकी छोटी छोटी हसरतें

वो बजने वाले जूते, वो आँखे हिलाने वाली गुड़िया, वो बाजा बजाता जोकर.....


ठंडी चाय गटक, पैरों की बिवाइयों में दर्द समेटे

आँचल में बच्चों के सपनों की गाँठ लगाए

दरकिनार कर लोगों की चुभती बातें...जलती आँखें

फिर से दौड़ी चली जा रही हैं औरतें......


©®अमनदीप "विम्मी"

Monday, 5 April 2021

शहर में गाँव जैसा कुछ



मेरे शहर तुम इनसे नहीं मिलते

तुम्हारे घरों के दरवाजे पास होकर भी पास नहीं होते

कहाँ बतियाते हो सीढ़ियों पर बैठकर घन्टों

कहाँ धूप में खिलखिलाते हो 

कहाँ बरसते हो प्यार बन कर

कहाँ पतझड़ के बाद फिर से हरियाते हो

मेरे शहर तुम थोड़े से

गाँव हो जाओ न.....


तुम्हारे शहर में चिड़िया तुम्हें देख मुस्कुराती नहीं है

पास आ तुम्हारे प्यार से गुनगुनाती नहीं हैं

चोंच भर दाना खाती नहीं है

चिड़ियों को आँख भर सहलाओ न

शहर तुम भी सुबह कुछ चहचहाओ न

मेरे शहर तुम थोड़े से

गाँव हो जाओ न....


तुम्हारे यहाँ साँझ मुरझाती नहीं है

रात रोशनी में मुँह छुपाती नहीं है

बच्चों थोड़ा सा ठहठहाओ न .....

धुँआ धुआँ सी रात मुट्ठी भर भर भोर बनाओ न

गाँव तुम शहर को गाँव सा भर जाओ न..


मेरे शहर तुम थोड़े से

गाँव हो जाओ न...


©®अमनदीप "विम्मी"

कविता संग्रह

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