मुँह अँधेरे घर के सारे काम निपटा
अपने लिए मुर्रा-भेल डाल टिफिन में
हाँफती सी चढ़ती हैं नासिक से मुम्बई जाने वाली लोकल में औरतें
ढोल-मन्जीरे-छेने बजाती भजन-मंडली के साथ
गाती जाती हैं भजन....
दिन भर के काम थकी मांदी फिर चढ़ती हैं
मुम्बई से नासिक की लोकल में पसीने से तर बतर वही औरतें
चार घन्टों का सफर तय कर पहुँचती हैं देर रात घर...
रास्ते में चौकीदार , ऑटो वाले मारते हैं मुस्कियाँ - लो आ गई मैडम घूम फिर के
काम ही क्या करती हैं ऑफिस में
आँख मटकाने के पैसे मिलते हैं इन्हें....
पनवाड़ी की दुकान में खड़े सिरफिरे आशिक बजाते हैं सीटी गाते हैं गाने बेढंगे बेसुरे अपने होंठों पर जीभ फिराते हुए...
"सुबह सवेरे सज धज तो बॉस के लिए होती है
हमें तो वही रोनी सूरत के दर्शन होते हैं "
ऐसे उलाहनों से बचने के लिए ट्रेन से उतरने के पहले पोत लेती हैं लिपस्टिक बना लेती हैं बाल
फिर भी सुनती है ताने - "रास्ते में तेरा यार बैठा था इतनी रात गए जो लिपी-पुती आई है देर रात"
देसी दारू की बोतल में डुबकी लगाते मर्द से
रात में चोट खाई औरतें बार बार करती हैं नौकरी से तौबा...
बिस्तर पर ही देख पाती हैं बच्चों को बढ़ते हुए
याद करती हैं उनकी छोटी छोटी हसरतें
वो बजने वाले जूते, वो आँखे हिलाने वाली गुड़िया, वो बाजा बजाता जोकर.....
ठंडी चाय गटक, पैरों की बिवाइयों में दर्द समेटे
आँचल में बच्चों के सपनों की गाँठ लगाए
दरकिनार कर लोगों की चुभती बातें...जलती आँखें
फिर से दौड़ी चली जा रही हैं औरतें......
©®अमनदीप "विम्मी"
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