Tuesday, 12 May 2020

मैं और लॉक डाउन

मैं और लॉक डाउन

मैं भी लॉक डाउन हूँ ?
मैं समझी नहीं...
आईने ने कल ही तो शिकायत की थी
न जाने कितने दिनों गुम रहती हो
जब भी देखा तुम्हें
हर बार
तुम्हारे चेहरे पर एक लकीर
ज्यादा दिखी है....
बालों की सलवटें जूड़े में छिपाए
दौड़ती रहती हो सुबह शाम
मेरी जरूरत क्या है
कंघी ने भी कहा गुस्से में....
वो चिड़िया जो मुझसे
मिलने की आस लिए खिड़की पर
आती रही रोजाना
आज भी लौट गई गुमसुम ....
खिड़की पर खड़े मुझे अरसे से
न सूरज ने देखा
न चाँद सितारों ने....
चाँद कब आधा हुआ
कब पूरा
सूरज कब उगा, कब डूबा
मोती बन ...
आसमान ने कितने रँग बदले
कब सितारों का घूँघट ओढ़ा
या विरह में शबनम ढुलकाए
ये भी ओझल ही रहा
आँखों के दायरे से...
नाश्ते और खाने की प्लेटें
मुझ तक पँहुची
बेतरतीब बिखरी सी
तुम घर में हो
ये भी...
घर से आती आवाजें बता रही हैं
या फ़लक तक फैले काम....
मुझे इस से कहाँ, कब और कैसे फ़र्क पड़ता है ?

©®अमनदीप/विम्मी

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