Tuesday, 12 May 2020

माँ नहीं होती तब ज्यादा बोलती है

माँ नहीं होती तब ज्यादा बोलती है


अभी भी दिखती हो तुम
घर के पास वाले चौराहे से
तेज तेज कदमों से चल कर आती हुई
मुझे देखते ही हँस पड़ती हो
सीने से लगा कहती हो इंतज़ार कर रही थी....

अभी तो देखा तुम्हें
जामुन के पेड़ के नीचे
मेरे मना करने  के बावजूद
नारंगी - नीला, मेरा सलवार कुर्ता पहने
कहती हो क्यों
अभी अच्छा तो है, कुछ दिन चलाया जा सकता है....

फिर से झिड़का है तुमने मुझे
धर्मयुग के मुख पृष्ठ पर
पोप की सुंदर फ़ोटो को सुंदर कहते हुए
कहती हो आजकल तुझे सब सुंदर लगते हैं...

कुछ देर पहले फिर कहा तुमने
सीख ले घर के काम
सास मुझे ही ताने देगी
तेरी माँ ने कुछ सिखाया नहीं तुझे....

देखा है तुम्हें
मेरी शादी का एक एक सामान इकट्ठा करते
आँखों ही आँखों नज़र उतारते
अपनी गहनों की पोटली खोल
अपनी शादी के गहनों का जोड़ा थमाते
जो तुझे पसन्द हो रख ले....

कई बार दरवाज़े से अभी भी
आ जाती है अंदर माँ
यूँ ही बैठी होती है सोफे पर
मंद-मंद मुस्काती
देखा कहती न थी  मैं
माँ बनोगी तब जानोगी
ध्यान रखा कर अपना...

अपनी डायरी में
एक एक चीज का ब्यौरा लिखते
तुम अपनी लिखावट में
अपनी आवाज़ में
और सबसे ज्यादा ससुराल के लिए
विदा करते समय आँखों की चिंता में
आज भी बोलती हो.....

कहा था न मैंने
मां जब नही होती
ज्यादा बोलती है...

©®अमनदीप/विम्मी

शौक और वक्त

शौक और वक्त

शौक
और
वक़्त..
एक
दूसरे
की
तरफ़...
पीठ
कर
चलते
रहे...
शौक
थे
तो
वक़्त
नहीं...
वक्त
है
आज
तो
शौक
नहीं.....

,©®अमनदीप/विम्मी

गलत था महाभारत

गलत था महाभारत

गलत था
अपने वचनों का निर्वहन
करने के लिए
गलत का साथ देना
गलत था
अहसानों को लादे फिरना
और उतार फेंकने की
हिम्मत न रखना
गलत था चौसर का खेल
गलत था
पत्नी को दाँव
पर लगाना
गलत था
अंधे के साथ
अंधा बनना
गलत था गलत को
गलत न बोलना...
अगर
कोई अपने वचन से
बंधा न होता
कोई अहसानों तले
दबा न होता
चीरहरण का कोई
औचित्य न होता
अगर कलयुग में
महाभारत काल होता
तो महाभारत ही न होता ।

©®अमनदीप/विम्मी

मैं और लॉक डाउन

मैं और लॉक डाउन

मैं भी लॉक डाउन हूँ ?
मैं समझी नहीं...
आईने ने कल ही तो शिकायत की थी
न जाने कितने दिनों गुम रहती हो
जब भी देखा तुम्हें
हर बार
तुम्हारे चेहरे पर एक लकीर
ज्यादा दिखी है....
बालों की सलवटें जूड़े में छिपाए
दौड़ती रहती हो सुबह शाम
मेरी जरूरत क्या है
कंघी ने भी कहा गुस्से में....
वो चिड़िया जो मुझसे
मिलने की आस लिए खिड़की पर
आती रही रोजाना
आज भी लौट गई गुमसुम ....
खिड़की पर खड़े मुझे अरसे से
न सूरज ने देखा
न चाँद सितारों ने....
चाँद कब आधा हुआ
कब पूरा
सूरज कब उगा, कब डूबा
मोती बन ...
आसमान ने कितने रँग बदले
कब सितारों का घूँघट ओढ़ा
या विरह में शबनम ढुलकाए
ये भी ओझल ही रहा
आँखों के दायरे से...
नाश्ते और खाने की प्लेटें
मुझ तक पँहुची
बेतरतीब बिखरी सी
तुम घर में हो
ये भी...
घर से आती आवाजें बता रही हैं
या फ़लक तक फैले काम....
मुझे इस से कहाँ, कब और कैसे फ़र्क पड़ता है ?

©®अमनदीप/विम्मी

विश्वास सन्नाटा और शोर

जब विश्वास का तारा
टूटता है...
तो होती है
गूँज...
न भरने वाले
सन्नाटे की...
और फिर
पसरता है
शोर ही शोर...
भीतर
परत दर परत...

©® अमनदीप/विम्मी

तुम्हारा पूछना

कल तुमने पूछा था
ठीक हो तुम
बस
इतना ही तो पूछना था
अब
ठीक हूँ मैं।

©®अमनदीप/विम्मी

प्रेम और नियति

प्रेम और नियति

प्रेम को
चाहिए अभिव्यक्ति..
अभिव्यक्ति को
आज़ादी..
आज़ादी की
एक तय सीमा..
सीमा को
स्वछंदता की उम्मीद...
उम्मीद को
नया आसमान....
आसमान जिस पर
सबका हक है...
हक सबको
मंजूर नहीं है...
जहाँ मंजूरी नहीं
वहाँ प्रेम का मरना
नियति है...

©®अमनदीप/विम्मी

उसने ईश्वर होने से मना कर दिया



बहुत हुआ
अब थम जाओ
काट डालो
पैने डंक
जो तुमने
उगा रखे हैं
मन की
अंदरूनी तहों में...
बस करो कि
जब न रहो तुम
बची रहे तुम्हारे
हिस्से की जमीन
त्रिशंकु होना
अच्छा नहीं लगेगा तुम्हें...
विश्वास रखो
नाखूनों रहित
कोमल दिल
बचा लेंगें
अनगिनत हाथ....
वही हाथ
फिर
उठेंगे दुआओं में
और बचा लेंगें
मानवता
पूरा सूरज बचाना हो
तो
बचा लो
अपने अपने
हिस्से का सूरज
बिना कलह...
क्योंकि
भयावह है जो
आज मैंने सुना ...
मैंने सुना ईश्वर को
इश्वर से बात करते
उसने ईश्वर के साथ
होती
बदसलूकी देख
ईश्वर होने से
मना कर दिया....
©®अमनदीप/विम्मी

आस

"वक़्त कितना भी कठिन क्यों न हो
 दरवाजे की सिटकनियाँ
 मुस्तैदी से बंद  ..
 न आ पा रही हो खुली ताजी हवा
 तब भी
 एक खिड़की पूरब की तरफ
 खुली रखनी चाहिए हमेशा
 कि वही खिड़की
 आस की आस को जिंदा रखती है। "
,©®अमनदीप/विम्मी

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