Friday, 17 July 2020

चोर की दाढ़ी में तिनका

एक मुहावरा सबने सुना है
" चोर की दाढ़ी में तिनका "

अब सवाल नम्बर एक...
क्या चोर होने के लिए
दाढ़ी होना नितान्त आवश्यक है ?

सवाल नम्बर दो..
दाढ़ी में तिनका कैसे ढूँढा जाए ?

अनिवार्यता....
चोर की दाढ़ी होना जरूरी है
दाढ़ी में तिनका होना भी जरूरी है
तिनका होगा पर उसे ढूँढने की युक्ति निकालना तुम्हारी जिम्मेदारी है...

सबसे अहम सवाल
क्या हो अगर चोर की दाढ़ी ही न हो ?

निष्कर्ष
दाढ़ी होना या न होना चोर का और केवल चोर का अधिकार क्षेत्र है
आप उस पर सवाल नहीं उठा सकते...

इति

©®अमनदीप/विम्मी

Thursday, 9 July 2020

कुछ शेर

" किसे फिक्र थी यहां अपनी उड़ानों की
गलतियाँ ढूँढते फिरते थे आसमानों की "
©®अमनदीप/ विम्मी


आँखों में  ही अश्क सँभल जाएँ तो बेहतर है
कुछ ज़ख्मों का यूँ भी बहना नहीं अच्छा।
©®अमनदीप/ विम्मी


तुम्हारे और मेरे प्यार में फर्क कहाँ था
मैं भी तुम को चाहती थी  और तुम भी खुद को
इस तरह मेरा मैं और तुम्हारा तुम कभी नहीं टकराए
©®अमनदीप/ विम्मी


" दोस्त कहते थे जिसे वो बिक गया बाज़ार में

अपनी पसन्द पर नाज़ है कहते इतराते थे हम "

©®अमनदीप/विम्मी

धूप मेरे हिस्से की लिए चलता रहा
वो शख्स मेरा बाप था बिन कहे जलता रहा

पलते थे मेरी आँख में जो ख़्वाब अधूरे न रहें
दिन-रात थी चिन्ता मेरी हर हाल वो जगता रहा

चोट जब मुझको लगी वो भी रोया था बहुत
काँटे मेरी राह के पलकों से वो चुनता रहा

न कभी कम थे पैरहन न जूतों की चमक फीकी पड़ी
चार जोड़ों में भी खुश छाले पैरों में लिए चलता रहा

ता-उम्र खुदा की इबादत करता रहा है वो अमन
सुबहो-शाम उसकी दुआ में मैं दीप बन जलता रहा

©®अमनदीप/ विम्मी

कुछ शेर

"फेहरिस्त दोस्तों की बढ़ती रही उधर

गुफ़्तगू करती रही तन्हाईयों से मैं"

©®अमनदीप/विम्मी



"बड़े बेमुरव्वत हैं मेरे शहर के लोग
 चाँदनी ली चाँद से दागी भी कह दिया"

©®अमनदीप/विम्मी




" सूरज रोशनी दे उसे छुप गया कहीं
चाँदनी अपनी समझ इतराता फिरा चाँद "

©®अमनदीप/विम्मी


" टूटता रहा टुकडों टुकडों न जाने कब से
दिल था जुड़ने का हुनर ढूंढता रहा  "

©®अमनदीप/विम्मी


नाम होना मेरा उनसे गवारा न हुआ
बही हाथ में लिए खुद ही खुदा बन बैठे हैं

©®अमनदीप/विम्मी

अच्छा है






चेहरे की झुर्रियों में सिमट आया है
सदियों का सफ़र,
माथे की लकीरों से 
जज़्बे का बयाँ होता है...
आज भी हँसती हो तो
फ़ूल से झड़ते हैं...
देह में हर रँग
माटी के बसते हैं..
अच्छा है तुम्हारे गाँव को
शहर नहीं लगता...

©® अमनदीप/विम्मी

खींच लेना ज़मीन


उनके पैर चलना नही जानते
उनके पैरों में पंख लगे हैं....
चल पड़े गर भूले भटके
छाले तुम्हारे ही पैरों में पड़ेंगे
खून तुम्हारा ही रिसेगा...
सुनो
इस बार जो उतरे वो, खोजने जमीन
तुम
खींच लेना जमीन
उनके पैरों तले....।

©®अमनदीप/विम्मी

गोरैया




आज गोरैया ने 
गाना गाया
पोखर  में 
नहाईं  जी भर
धूप में बेख़ौफ़ 
खुद को सुखाया
फुदकती फिरी 
घास पर यूँ ही
सबने मिल 
चौपाल सजाया
बातों बातों में
किसी से रूठीं
फिर बातों से 
उन्हें मनाया
आज किसी से 
नहीं डरीं वो
आज किसी ने 
नहीं डराया....

©®अमनदीप/विम्मी

पैरों के लिए रास्ते






लडकियों के पैरों के लिए
दो रास्ते होते हैं
एक दहलीज़ के अंदर 
दूसरा दहलीज़ के बाहर
न वो दहलीज़ के अंदर खड़ी हो
बाहर वालों को आवाज़ लगा सकती हैं 
न बाहर खड़ी हो 
अंदर वालों के कानों के पर्दों को
अपनी मुलायम आवाज़ से सहला सकती हैं...

©®अमनदीप/विम्मी

पिता




दुनिया में सबसे मजबूत कँधे
पिता के होते हैं
जो उम्र के बोझ से
दब जाएँ भले 
परन्तु सन्तान की
नाकामियों
तकलीफों
गलतियों
आकांक्षाओं को
बखूबी ढोने की हिम्मत रखते हैं....
छायादार वृक्ष
सदृश्य
उम्र की दहलीज के 
अंतिम पड़ाव तक
एक एक कर चुकते पत्ते
तब तक साया देते हैं
जब तक सलामत रहता है 
आखिरी पत्ता ....

©®अमनदीप/विम्मी

Wednesday, 8 July 2020





बिखरा कमरा भरा लगता है



यूँ तो मुझे हमेशा से
साफ सुथरा करीने से सजा घर अच्छा लगता है
हमेशा कहती रही हूँ तुम्हें
की घुप्प अंधेरे में भी ढूँढ सकती हूँ अपनी चीज़ें
थोड़ी तो साज सम्भाल सीख ....
तुम कहती हो
मुझे फैली हुई चीजें और बिखरा कमरा पसन्द है
तुम नहीं जानती मम्मा 
जीनियस होते हैं ऐसे लोग....
बेतरतीब फैले कपड़े
एक के ऊपर एक खुली पुस्तकें
गुदड़ी बनी चद्दर बड़बड़ाती मैं समटने लगती हूँ जब
ओहो मम्मा कहते हुए जकड़ लेती हो पीछे से 
कहाँ छुड़ा पाती हूँ....
बैठो, बोलना शुरू करती हो तो चुप नहीं होती
कितना चिल्लाती हो कहते हुए
दोनों हाथ कान पर रख बोलती हो दर्द हो गया है कान मेरा....
फिर मेरी हूबहू नकल उतार
मेरे रटे रटाए डायलॉग मुझे ही सुना देती हो
एक एक शब्द वैसे ही
जैसे कहती हूँ  मैं...
थक हार कर कमरे से बाहर निकलती मैं
फिर रटा रटाया वाक्य दोहराती हूँ
जो करना है कर, जब मैं न रहूँगी तब समझना.....
आज तुम घर पर नहीं हो
चद्दर गुदड़ी बना इकट्ठा कर रखी है मैंने
टेबल पर रख दिया है किताबों भरा बैग
बिस्तर पर कपड़े
आज बिखरा हुआ घर अच्छा लग रहा है....

©®अमनदीप/विम्मी

एक क्षणानुभूति बना देती है बुद्ध


वो आई 
मिली मुझसे
बहुत दिनों बाद
हमने बहुत सारी बातें की
जाने के लिए उठी
मुड़ी, मुड़ कर चली गई
तब से एकदम खाली बैठी हूँ....

खालीपन 
सिर्फ रिक्त होने से नहीं होता
ये होता है 
लबालब भरे होने के बाद  भी....

सुख या दुःख
दोनों ही अवस्था में
लबालब होने
या कि रिक्त होने पर
संज्ञाशून्य हो जाता है मनुष्य
यह एक क्षणानुभूति उसे बना देती है बुद्ध...

©®अमनदीप/विम्मी

कविता संग्रह

  https://www.amazon.in/dp/B09PJ93QM2?ref=myi_title_dp